बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
अथवा
दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
उत्तर -
दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य
नीतिशास्त्र व्यक्ति और समाज के जीवन में एक नैतिक व्यवस्था मानता है। जो जैसा करता है उसको वैसा फल मिलता है। यदि संसार में एक नैतिक व्यवस्था है तो अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा फल जरूर मिलना चाहिये। अतः अपराध करने वाले को सजा मिलनी चाहिये। अपराधी जान-बूझकर नियम को भंग करता है अपितु उस पर नियम भंग करने का पूरा उत्तरदायित्व है और इसलिये उसको दण्ड मिलना बिल्कुल सही है। यह दण्ड व्यवस्था का नैतिक आधार है, परन्तु दण्ड के विषय में सभी विचारक एक ही सिद्धान्त को नहीं मानते। दण्ड के नैतिक मूल्यांकन के लिए दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों का विवेचन करना आवश्यक है।
मनु ने दण्ड को 'धर्म' कहा है। दण्ड सबका रक्षक है। दण्ड अपने आप ईश्वर ने पैदा किया है। दण्ड की यह परिभाषा उसकी आदिकालीन परिभाषा है जबकि प्रत्येक सामाजिक व्यवहार को धार्मिक अथवा आध्यात्मिक रूप दिया जाता था किन्तु क्रमशः दण्ड की परिभाषा समाज के प्रसंग में दी जाने लगी। इस दृष्टिकोण के अनुसार दण्ड एक सामाजिक प्रतिरोध है।
वाल्टर रेकलेस (Walter Reckless) के अनुसार, "दण्ड वह प्रतिरोध है जो कामनवैल्थ एक अपराधी सदस्य से लेता है। परन्तु व्यक्ति से समाज के प्रतिशोध की धारणा कुछ ठीक नहीं लगती। अतः कुछ अन्य विद्वानों के दण्ड को सामाजिक प्रतिशोध न कहकर सामाजिक नियन्त्रण कहा है। सेथना के शब्दों में, "दण्ड एक प्रकार का सामाजिक नियंत्रण है जिसमें शारीरिक दुःख होना जरूरी नहीं है।' वेस्टरमार्क लिखता है, "दण्ड वह पीड़ा है जोकि अपराधी को एक निश्चित तरीके से समाज द्वारा अथवा उस समाज के नाम पर दी जाती है जिसका कि वह स्थायी सदस्य है।
दण्ड की उपरोक्त परिभाषाओं से यह पता लगता है कि कुछ लोग दण्ड में शारीरिक यातनाओं को जरूरी मानते हैं और कुछ जरूरी नहीं मानते। साधारणतया पुराने लेखक दण्ड में शारीरिक यातना जरूरी मानते थे लेकिन आधुनिक काल में अपराधियों को कष्ट देने के स्थान पर उनके सुधार पर अधिक बल दिया जाता है। इस दृष्टिकोण से दण्ड में शारीरिक कष्ट होना आवश्यक नहीं है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि दण्ड व्यक्ति के अनुचित कार्य के प्रति एक ऐसी प्रतिक्रिया है जिसमें अपराधी को कष्ट देकर अथवा बिना कष्ट दिये ही उसके अपराध का अनुभव कराने तथा उसमें सुधार करने की कोशिश की जाती है।
दण्ड के सिद्धान्तों के विवेचन से भी दण्ड का स्वरूप स्पष्ट होता है। इन सिद्धान्तों में दण्ड के उद्देश्य अलग-अलग माने गये हैं। परन्तु आधुनिक काल में अधिकांश अपराधशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि दण्ड का उद्देश्य केवल अपराध को रोकना ही नहीं बल्कि अपराधी को सुधारना भी है और इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्हें शारीरिक कष्ट देना आवश्यक नहीं है।
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